शनिवार, 14 मार्च 2009

मुख्तार माई......

अल्लाह जब आपको कठिन परिस्थितियां देता है तब उसके साथ आप को उससे जूझने का साहस भी देता है - मुख्तारमाई।

आज बात मुख्तार माई की क्यों मुझे भी नहीं मालूम....शायद कुछ चीज़ें अंदर तक हिला जाती हैं...और खास तौर पर तब...जब आप कुछ कर नहीं पाते.....मुख्तार माई का मामला सन 2002 का है जब एक ग्रामीण कबायली पंचायत के कथित आदेश पर उनका सामूहिक बलात्कार किया गया... दक्षिणी पंजाब (पाकिस्तान) के मीरावालां गांव के एक ज़मींदार ने अपनी बेटी के एक लड़के के साथ शारीरिक संबंधों की जानकारी मिलने पर उस लड़के की बहन को निशाना बनाया...ज़ाहिर है ये लोग काफी गरीब थे....

पुलिस के मुताबिक 30 अप्रैल को हुई इस पंचायत में लगभग पचास लोग शामिल थे और वे उस ज़मींदार की जाति के ही थे....बहरहाल बदला लेने की इस कार्यवाई का पूरे गांव में लाउडस्पीकर से प्रचार किया गया और एक मकान में ले जाकर मुख्तार माई के साथ इस घृणित काम को अंजाम दिया गया....इस दौरान ज़मींदार के रिश्तेदार बाहर पहरा देते रहे.......इस घिनौने काम का पूरा गांव गवाह बना...सबने चुपचाप तमाशा देखा और अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को इस के बाद वैसे ही जिया....जैसे वो जीते आ रहे थे....

लेकिन इस पाशविक घटना से अगर कोई टूटा तो वो खुद मुखतार माई थी....और इस घटना से अगर कोई फौलाद बना तो भी वो खुद मुख्तार माई ही थी.....क्योंकि उन्होनें ही हिम्मत करके पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई....अपने ऊपर हुए इस अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए पहला कदम बढ़ाया....ऐसा नहीं कि उनके कदम डगमगाने की कवायद नहीं की गई....या फिर उन्हें धमकाया नहीं गया....लेकिन तब तक वो शायद फौलाद बन चुकी थीं.....और आज भी अगर कोई मुख्तार माई को जानता है तो सिर्फ उनके फौलादी इरादों के लिए.....नाकि एक ऐसी अबला के लिए जिसकी इज्ज़त गांव भर के सामने उतारी गई और लोग तमाशबीन बने रहे.......

हालांकि इस घटना के बाद वोही सब हुआ...जो आमतौर पर होता है....अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी आलोचना की गई...तमाम नारीवादी और मानवाधिकार आयोग जैसे संगठन आगे आए और मुख्तार माई के ज़ज्बे की कद्र करते हुए....उनके साथ उनकी लड़ाई लड़ने में साथ देने के फैसले किए गए....लेकिन किसी ने भी जड़ों में जाकर झांकने की कवायद नहीं की....जहां से ये सड़ा देने वाली व्यवस्था सिर उठा रही थी.....

उसके बाद लगातार मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट्स भी आईं कि महिलाओं की क्या स्थिति है...और इज्जत के नाम पर दी जाने वाली मौत का क्या आंकड़ा है....लेकिन कोई नहीं सोचता कि हम...हमारे बीच के मौजूद नर-पशुओं को क्या सज़ा देते हैं....ऐसी घटनाओं पर हमारा दृष्टिकोण क्या होता है...क्यों वो सारा कबीला चुपचाप मूकदर्शकों की तरह खड़ा रहा...क्या वहां मुख्तार माई के अलावा किसी और की बहन-बेटियां नहीं रहीं होंगी....क्या उन लोगों को ये एहसास नही सालता होगा कि कल कहीं उनके किसी अपने के साथ ऐसा हुआ तो....और क्या हमेशा से होती रहने वाली इन हरकतों के लिए हमें हमेशा मानवाधिकार आयोग....वकील...नारीवादी संगठन और बाकी ऐसी ही तमाम चीज़ों की सहायता लेनी पड़ेगी....

मुझे समझ नहीं आता....आखिर ऐसा होता है तो क्यों होता है......महिलाओं की ऐसी स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार है....महिलाएं आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं.....लेकिन अत्याचारों के मामले में हमेशा रिकॉर्ड्स महिलाओं के ऊपर ही बनते हैं.....कई बार तो ऐसा लगता है कि हम एक खोखली दुनिया मे रहते हैं....या फिर वो दुनिया....जहां महिलाएं इस दरिंदगी की शिकार होती हैं....कुछ और ही होती होगी....और या फिर वो लोग जो इस तरह की मानसिकता रखते हैं....उनके मां-बाप....उनकी परवरिश क्या जानवरों जैसी होती होगी....क्या हम इसी तरह सभ्य समाज का आवरण ओढ़कर....जानवरों के बीच जीते रहेंगे.......सच में बहुत कॉम्पिलिकेटेड नज़र आता है सब..... !!!!!!

15 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय सटीक अभिव्यक्ति . धन्यवाद.

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  2. hum sab ko khud badal kar nayi duniya ka aagaz karna hoga.........

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  3. ये पाशविक संस्कार हैं. वैसे तो घटना पकिस्तान की है लेकिन अपने यहाँ भी ऐसी बातें यदा कदा सुनने को मिलती ही हैं. धिक्कार है.

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  4. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  5. जी हाँ बहुत से मर्द आजभी पुरुष होने के बजाय एक जंगली नर जानवर हैं जो मादा को देखकर कामान्ध हो टूट पड़ते हैं। उन्हें औरत का शरीर केवल मादा वस्तु के रूप में दिखायी देती है। समाज में ऐसे नराधम बिखरे पड़े हैं।

    भर्त्सना पर्याप्त नहीं है। सवाल समाधान ढूँढने का है। इसके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जैसी ‘जख्मी औरत’ नामक फिल्म में दिखाया गया है। ऐसे कामान्ध मर्दों का वह अंग ही शरीर से पृथक कर देना चाहिए।

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  6. achchhi rachana hai...ummeed hai hame khud ko sudharane ki koshish karne ke liye prerit karegi.


    Rajarshi

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  7. वो बे-लिबास लाश कुछ उसूलों की थी,
    जिसे कल रात घसीटे थे कानून बनाने वाले.

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  8. संक्रमण समय में कबीलों और आधुनिक सामजिक ढांचों के बीच अपनी सुविधा से जो उपयुक्त लगे उसका प्रयोग करने के लिए बलपूर्वक हथियाए गए अधिकार की दास्ताँ है ये, आपके प्रश्न जायज और प्रेरणादायक है. पोस्ट बहुत ठीक लिखी है, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करना इसको ही कहते हैं.

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  9. Bahut achchha,
    kabhi yahan bhi aayen
    http://jabhi.blogspot.com

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  10. बहुत अच्छी रचना है । भाव और विचारों का बेहतर समन्वय है । इससे अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है ।

    समय हो तो मेरे ब्लाग पर प्रकाशित रचना-आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-पढ़े और अपना कमेंट भी दें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  11. kafi acha likha hai aapne ..naari ki is dasha k liye samaj hi jimedaar hai

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