मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

वरुण का इमोशनल अत्याचार...

वरुण गांधी....फिल्हाल तो नाम ही काफी है....किसी खास इंट्रोडक्शन की जरुरत नहीं है....एक बात तो माननी पड़ेगी....वरुण गांधी ने अपनी पहचान बना ही ली......हां ये बात ज़रुर अलग है.....कि शायद वो खुद ही ये नहीं जानते होंगे....कि ये पहचान क्या उन्हें उनका भविष्य दिला पाएगी या फिर.....। ये हम सभी जानते हैं कि कुछ वक्त पहले तक वरुण की पहचान महज़ मेनका गांधी के बेटे के रुप में ही थी........लेकिन आज उनके घटिया और विवादास्पद भाषण को सुनने के बाद....कोने कोने में उनकी पहचान हो चुकी है.

लेकिन एक बात समझ नहीं आयी.......रासुका लगने से पहले भड़के-भड़के से नज़र आने वाले वरुण जेल से बाहर आने के बाद थोड़े कम भड़कीले नज़र आए....उनके भाषण में वो भड़काऊ पन तो था...लेकिन थोड़ा दबा-दबा.....और हां वरुण ने जेल से बाहर आकर जो पहला भाषण दिया.....वो फुल इमोश्नल देसी ड्रामे से लबरेज़ था...जिसमे वो एक बच्चे की तरह अपनी मां के पल्लू से भी चिपके नज़र आए.... लेकिन साथ ही वरुण ने मंच से एक मंजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह पीलीभीत की जनता से गुहार लगाई ....कि उनकी मां के आंसुओं का जवाब जनता देगी....बहुत बढ़िया वरुण.....कर्म तुम करो....मां तुम्हारी रोए....और हिसाब किताब करे जनता....जनता इतनी भोली भी तो नहीं....जो यूंही तुम्हारी बातों में आ जाए........

वरुण गांधी...वो गांधी जिसकी जड़ों में झांकने पर पुरानी राजनीतिक गलियां तो नज़र आती हैं......लेकिन अफसोस.....वो गलियां.... वरुण को राजनीतिक गलियांरों में पांव रखने की हसरत को पूरा नहीं करा पाती......

वरुण के साथ जो हो रहा है.....उसे वरुण वक्त रहते समझ नहीं पा रहे हैं....और ये नासमझी कहीं उन्हें डुबो ना दे.....वरुण गांधी ने जिस वक्त ये भड़काऊ भाषण देकर उन्माद फैलाया था...उस समय बीजेपी ने बड़ा आश्वस्त करते हुए उनके ऊपर अपना हाथ रखा था.....लेकिन उसके बाद की उनकी रैली में सारा नज़ारा एकदम अलग और स्पष्ट था....भाषण के बाद वरुण को बीजेपी के पोस्टर ब्वाय के रुप में प्रोजेक्ट किया गया...नरेन्द्र मोदी के साथ साथ झंडो और बैनरो पर भी उन्हें जगह मिली..... ....लेकिन शायद वरुण जेल से बाहर आने के बाद बदले हुए हालात देख और समझ नहीं पाए....जेल से बाहर आने के बाद तुरन्त होने वाली रैली से हिंदुत्व को दर्शाने वाले सारे पोस्टर और बैनर्स गायब थे.....

हिंदुत्व के बहाने एक बार फिर बीजेपी ने उन्हें अपना मुखौटा बनाने की कवायद तो की...और हो सकता है कि आगे भी करे.....लेकिन वरुण गांधी के नामांकन के वक्त....बीजेपी के किसी भी बड़े नाम ने अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराने में ही अपनी भलाई समझी....लेकिन इतने पर भी वरुण को अपनी खोखली नींव की पहचान उजागर नहीं हो पायी....वरुण या मेनका की पेशानी पर फिल्हाल तो बल पड़ते नज़र नहीं आते लेकिन अगर यही हालात रहे तो ये ज़रुर है कि वरुण कहीं राजनीतिक बिसात पर पड़े एक प्यादे के रुप में ना रह जाएं....फिल्हाल तो वरुण गांधी.....बीजेपी के गांधी के तौर पर प्रोजेक्ट किए जा रहे हैं और घूमघूमकर धुंआदार प्रचार भी कर रहे हैं.....हिंदुत्व का चेहरा बनते ....भगवा रंग में डूबे....

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

आडवाणी....अस्सी की उम्र और प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश.....आखिर क्यों....??

एक ज़माना हो गया....आडवाणी को राजनीति में अपने बाल सफेद करते ....आज आडवाणी किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.....हालांकि आडवाणी की ये इच्छा बरसों से उनके सीने में दबी हुयी थी.....जो मौका नहीं मिलने पर एक टीस में परिवर्तित होती चली गयी.....आडवाणी के साथ विडंबना ये है कि वो अपनी उम्र के अस्सीवें दशक में हैं......और वो ये बात भी बखूबी जानते हैं.....कि अभी नहीं तो कभी नहीं......

क्योंकि कल किसी ने नहीं देखा....और कल के सपने की वजह से वो आज को खोना नहीं चाहते ....आडवाणी क्या चाहते हैं और क्या नहीं.....हालांकि इस बात से जनता को निजी तौर पर कोई सरोकार नहीं है.....सरोकार है तो महज़ उनके अब तक के हिसाब किताब से.....।

आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की हसरत का सफर बरसों पहले से ही शुरु हो जाता है..जब आडवाणी संघी थे.....संघ से शुरुवात करने वाले आडवाणी....बीजेपी की नींव रखने वाले नामों में शुमार हैं....हमेशा ही अटल बिहारी वाजपेयी का दांया हाथ बनकर रहने वाले आडवाणी ने अपनी पकड़ राजनीति में हमेशा ही मज़बूत बनाकर रखी....

ये बात अलग है कि आडवाणी का दामन बहुत ज्यादा दागी भी नहीं और बहुत पाक साफ भी नहीं.....वो आडवाणी ही थे.....जिनकी उमाभारती (फिल्हाल हाशिए की राजनीति में पड़ीं) के साथ खुशी का जश्न मनाते तस्वीरें पूरी दुनिया के अखबारों में छपी थी ....जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया था.....वो भी आडवाणी ही थे.....जो मंच से जयश्रीराम की हुंकार लगाते थे....और अपनी हाईटेक रथयात्रा के जरिए पूरे देश में घूम-घूम कर रामलहर का उन्माद फैला रहे थे और बीजेपी के लिए वोट बैंक मज़बूत कर रहे थे....बीजेपी उनका ये उपकार कभी नहीं भूलेगी....रामलहर के उन्माद के बाद ही आडवाणी की पूरे देश में तीखी और सक्रिय भूमिका निकलकर सामने आयी....वो जनता से सीधे तौर पर जुड़े और उनकी भावनाओं को बखूबी कैश करवाया......

आडवाणी पर कंधार कांड का भी दाग है...कुछ परोक्ष और कुछ अपरोक्ष रुप से इसका दंश वो आज भी झेल रहे हैं......इसके अलावा भी आडवाणी विवादों में एक बार फिर फंसे.....जब उन्होंने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान अपने आप को सेक्यूलर बनाने की कोशिश में बैठे बिठाए संघ से दुश्मनी मोल ले ली...आडवाणी ने वहां जिन्ना की तारीफ में कसीदे पड़े औऱ इधर संघ ने उनसे हाथ खींच लिए......भारतीय राजनीति की बिसात पर संघ की ये खटास थोड़ी महंगी पड़ी और राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए.......

इसके अलावा आडवाणी आज के वक्त के मुताबिक चलने में भी माहिर माने जाते हैं...उन्हें अपनी निजी ज़िंदगी को मीडिया के ज़रिए कैश करवाने में कोई गुरेज़ नही हैं...
आडवाणी फिल्मों के शौकीन हैं.....ब्लॉग लिखते हैं.....अपनी बेटी को सबसे करीब कहते है....ये सारी बातें मीडिया के ज़रिए ही बाहर आती रहती हैं...

आडवाणी बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन रिटायरमेंट और उम्र के मसले पर चुप्पी साधते हैं....आज के युवा समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले नए चेहरों जैसे राहुल गांधी से मुकाबला करने को सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्विन्दिता करार देते है.....

आडवाणी भाषण तो बहुत मुखर होकर देते हैं....युवा भारत में घुलना मिलना भी पसंद करते हैं पर कहीं ना कहीं शायद वो ये भूल जाते हैं....या समझ नहीं पाते....कि आज का भारत उन्मादी नहीं है.....वो भावुक होकर वोट नहीं देता है....उसे उन पुराने गड़े मुर्दों से कोई सरोकार नहीं है.....क्योंकि आज का युवा ज्यादा विकसित....प्रतिभाशाली और युवा भारत का प्रतिनिधित्व करता है....वो मतदान के गिरते प्रतिशत को भी नहीं समझ पाते ....वो ये भी नहीं समझ पाते कि वोट डालने के लिए पप्पू अभियान चलाने पड़ते हैं....जनता बदल चुकी है...।

आडवाणी आज बाकी राजनीतिक लोगों के काले धन को भारत वापस लाने का सवाल खड़ा कर हमदर्दी या एक रैशनल वोट चाहते हैं तो वो ये क्यों भूल जाते हैं कि वो खुद भी उसी जमात का ही एक हिस्सा है....जिसे हम मौकापरस्त बिरादरी के नाम से भी जानते हैं....और जिस हम्माम में सभी नंगे होते हैं.....आडवाणी ये क्यों भूल जाते हैं...कि जनता उनके दामन को पाक साफ मानेगी और उनकी लच्छे दार बातों में आकर ये सवाल नहीं उठाएगी....कि क्या स्विस बैंक में उनका कोई एकाउंट नहीं....क्या उन्होनें कभी काला धन नहीं कमाया.....क्या उन्होंने कभी वो काम नहीं किए...जिनके लिए राजनीति की गलियां बदनाम मानी जाती हैं.....

हालांकि राजनीति में सच्चाई की कोई कसौटी नहीं....फिर भी आडवाणी चाहते हैं कि जनता उन्हें चुनें....उन्हें अपना वोट दे....और उनकी बरसों पुरानी सुलगती इच्छा को मूर्त रुप देकर उन्हें हिंदुस्तान का तख्तोताज़ सुपुर्द करे........आखिर क्यों...??

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

संजय दत्त....

वक्त हमेशा ही इंसान को अपनी कसौटी पर परखता रहता है…ये सब जानते हैं....सिवाए मुन्नाभाई के......जीहां मुन्ना भाई यानि संजय दत्त.....बार-बार कड़ी से कड़ी कसौटी पर उतरने के बावजूद वो ये सच्चाई समझना नहीं चाहते या फिर अंजान बनने की एक्टिंग में मसरुफ हैं.....कुछ भी हो उनके हालात पर तरस तो आता ही है.....।

सुनील दत्त की छत्रछाया में रॉकी से खलनायक और खलनायक से मुन्नाभाई तक का सफर तो संजय दत्त ने खूब किया....संजय दत्त शायद ये भूल जाते हैं कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एक खुली किताब है.....वो एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.....जिसमें हिंदुस्तान की जनता को नशा मिलता है....सिनेमा हमारे समाज की इच्छाओं और कुंठाओ दोनों को दिखाता है...और संजय दत्त उसी दुनिया से आते हैं।

हांलाकि फिल्मी दुनिया में एक सफल सफर तय करने के बाद संजय दत्त का राजनीति में उतरना कोई बड़ी बात नहीं....इसके पहले भी कई और फिल्मी हस्तियों ने गाहे-बगाहे राजनीति का दामन थामा ही है....हालांकि कितनों की किस्मत राजनीति मे चमकी ये भी जनता को याद दिलाने की जरुरत नहीं..।

सत्ता का नशा किसी भी दौलत और ग्लैमर से ज्यादा बढ़ा होता है....ये बात संजय दत्त के ज़रिए हम एक बार फिर देख रहे हैं.....संजय दत्त जिस तरह की लफ्फाज़ी और बयानबाजी कर रहे हैं....ये उनकी राजनीतिक कच्ची उम्र का पर्याय जरुर बताती है....लेकिन राजनीति में ही इसे मानसिक दिवालिएपन से कम नहीं आंका जा रहा है...संजय दत्त तो फिल्मी इंसान है इसलिए शायद रील और रियल लाइफ में फर्क करना अक्सर भूल जाते हैं....लेकिन जिन्हें संजयदत्त ने अपना सरमाया बनाया है....वो कहीं संजय की डोर संभाले हैं...ये दिखता है और साफ नज़र आता है कि संजय दत्त महज़ एक राजनीतिक प्यादा बनकर रह गएं है...।

संजय दत्त ना केवल अपना व्यक्तित्व हल्का बना रहे हैं.....बल्कि अपने पिता की राजनीतिक विरासत और छवि भी धूल में मिला रहे हैं.....संजय ये बखूबी जानते हैं कि उनकी ये कारगुज़ारियां उनकी बहन प्रिया दत्त को भी चोट पहुंचा रहीं है....पर बावजूद इसके राजनीति का ये नशा संजय को अपनी पूरी गिरफ्त में ले चुका है।

क्या हमें ये नज़र नहीं आता कि संजय के ये भड़काऊ और अविकसित बयान.....चाहें वो बीएसपी सुप्रीमो मायावती को जादू की झप्पी और पप्पी देने की बात हो या फिर अपनी मां नरगिस के मुसलमान होने की बात का तड़का लगाकर थोड़ी बहुत सांप्रदायिकता की आंच और फैलाने की कवायद हो.....महज़ स्टंटबाज़ी लगती है।

सवाल ये है कि क्या संजय को वाकई जनता की सेवा ही करनी थी...अगर जवाब हां है तो इस राजनीतिक स्टंट की क्या ज़रुरत थी.....या फिर हम इसे ये माने की उन्हें भी बाकी बाहुबलियो और आपराधिक छवि के लोगों की तरह महज़ राजनीतिक संरक्षण की जरुरत भर थी....जिसे अमर सिंह ने बांहे फैलाकर उनका स्वागत कर अपने बड़े दिल का उदाहरण पेश किया..........

क्या जनता वाकई इतनी बेवकूफ है.......
शायद हां.....शायद नहीं.....
लेकिन इतना तो तय है कि संजय को इसका जवाब आने वाले वक्त में खुद-ब-खुद मिल जाएगा।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

राजनीति और हम........

भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण दौरों मे से एक इस वक्त चल रहा है....महासंग्राम कहें....चुनावी पर्व कहें....समर का आगाज़ कहें या फिर लोकतन्त्र का महापर्व....

बहुत सारे लोगों ने बहुत सारे नाम दिए हैं.......लेकिन एक बहुत ही सहज और सरल बात सिर्फ इतनी है....कि ये वक्त है जम्हूरियत को पहचानने का ....एक आम...छोटे और इन प्रपंचो से दूर रहने वाले व्यक्ति की वोट की ताकत का.......जो किसी भी नेता की किस्मत का पालनहार होता है........

राजनीति को समझने के लिए इसके अंदर जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती.....बाहर से भी ये उतनी ही गंदी नज़र आती है.....जितनी अंदर से है.....राजनीति अपने आप में अधूरा सा शब्द लगता है क्योंकि मुझे इसमें नीति जैसी कोई बात नज़र ही नहीं आती.....

हर बार चुनावी संग्राम छिड़ने से पहले....लगभग सभी दल.....अपना अपना मैनिफेस्टों निकालते है....कि वो जनता के लिए.....फलां-फलां काम करेंगे....रियाएतें देंगे......लेकिन हर बाऱ....लगभग हर बार....ये चुनावी घोषणा पत्र....चुनाव के निपटते ही ....कहीं विलीन होते नज़र आते हैं....वो सारे लोकलुभावन वादे जो हर पार्टी का नुमायन्दा करता है....कहीं भी नज़र नहीं आते.......

नज़र अगर कुछ आता है तो वो है सिर्फ मसल और मनी का पावर गेम......जिसके पास जितना ज्यादा पैसा.....जितने ज्यादा बाहुबली....समझो उसकी जीत की संभावना उतनी ही ज्यादा.....साथ ही अगर कैंडिडेट के साथ माफिया या फिर कोई और आपराधिक प्रकरण जुड़ा हुआ है.....तब तो समझ लो कि उसकी पौ-बारह......

आज सीना चौड़ाकर जो बाहुबली खड़े होते हैं.....उनकी कोई गलती नही है....गलती सिर्फ और सिर्फ उस ग़रीब और दबी कुचली मानसिकता वाली जनता की है.....जो जूते खाने की आदी है.....जो इन जैसे लोगों को अपना मसीहा मानती है.....जो अपनी ही ताकत से अंजान है और ...जिसने उन्हें उस कुर्सी तक पहुंचाया...जहां से वो दूसरों के सीने पर पांव रखकर खड़े होने की औकात रखते हैं......अगर ये सच नहीं होता तो आज डीपी यादव....मुख्तार अंसारी....बबलू श्रीवास्तव....अफजल अंसारी.... शहाबुद्दीन ..... तस्लीमुद्दीन....और आनन्द मोहन सिंह अपनी औकात जरूर पहचानते.....

राजनीति में भी हालांकि वक्त लगातार बदल रहा है.....आज प्रवीण तोगड़िया,विनय कटियार या साध्वी ऋतम्भरा का जादू फिर से नहीं चल पाएगा.....भले ही वरुण गांधी ने उन्माद को एक बार फिर भड़काया है....एक बार फिर से बीजेपी को हिंदुत्व का मुद्दा दिया है.....लेकिन फिर भी हालात थोड़े से जुदा हैं.....आज एक बार फिर से राम लहर का उन्माद नहीं फैलेगा.....चाहें नरेन्द्र मोदी आएं या फिर आडवाणी.....उस चुनावी जनसभा में लोग नारे ज़रुर लगा सकते हैं.....लेकिन वोट की गारंटी कोई नही देता....और ये बात सबकी समझ मे भी आ रही है......

आज का भारत ज्यादा पढ़ा-लिखा है.....आज का भारत ज्यादा उन्मुक्त है....समझदार है....आज वो भारत नहीं है जहां महिलाएं बमुश्किल अपना मुकांम पाती थीं.....आज के हिंदुस्तान में सिर्फ हिंदी,हिंदु,हिदुस्तान का नारा वाजिब नहीं है....क्योकि आज भारतीय बाहर भी अपना परचम लहरा चुके हैं.......आज हम चांद तक पहुंच सकने मे फक्र महसूस करते हैं......

आज के भारतीय वरुण गांधी पर हंस सकते हैं....क्योंकि उन्हें वरुण गांधी के भीतर दबा फ्रस्टेशन नज़र आता है.....जो विरासत में गांधी नाम मिलने के बावजूद कुछ नहीं मिलने और कर सकने का मलाल दर्शाता है.......साथ ही दिखाता है कि बीजेपी एक बार फिर अवसरवादिता का खेल खेलने को आतुर है.....

अगर आज के भारत में बदलाव नहीं आया होता तो आज ...चिंदंबरम....नवीन जिंदल.....और आडवाणी के ऊपर जूते-चप्पल नहीं पड़े होते....यही वो आक्रोश है जो नेताओं के भीतर एक डर को पैदा कर रहा है.....कि आज अगर जूते चप्पल पड़ सकते हैं तो फिर कल क्या हो सकता है.......

और हां जनता में नेताओं के प्रति नॉन सीरियस एटीट्यूड भी आ चुका है....क्योंकि जब राबड़ी देवी चुनावी मंच से गाली गलौज करती हैं.....तो हमें हंसी आती है....क्योंकि इन सब बातों से सिर्फ उनका बैकग्राउंड और अवसाद नज़र आता है....इसीलिए आज नरेन्द्र मोदी के बुढ़िया-गुड़िया प्रकरण के बाद सबको उम्मीद थी कि शायद अब इस क्रम में पुड़िया भी जुड़ जाए.....

नेताओं को अगर लगता है कि चुनाव में ग्लैमर का तड़का लगाएंगें तो गलतफहमी दुरुस्त कर लें क्योंकि एक सुनील दत्त के अलावा कोई और ऐसा नाम अब तक नज़र नहीं आता जिसने ईमानदारी के साथ कुछ किया हो.....(दक्षिण को छोड़कर)...जिस वक्त गोविंदा ने राम नाईक को हराया था तो बड़ी उम्मीदें थीं....वहां की जनता की.....कि विरार का ये छोरा ज़रुर जनता की सेवा करेगा.....लेकिन गोविंदा जी भी फिल्हाल नोट प्रकरण में अपनी साख गंवा चुके है.......

किसी भी गलतफहमी में रहने वाले ये नेता भूल जाते हैं कि लोग इन्ही की वजह से आज वोट डालने आना....अपना टाईम वेस्ट करना समझते हैं.....आज लोगों को जागरुक करने के लिए अवेयर नेस प्रोग्राम चलाने पड़ते हैं.....युवाओं को आकर्षित करने के लिए...पप्पू का सहारा लिया जाता है....आखिर क्या है ये सब...

तो अलग अलग तरह के रंग देखने को तो मिलते हैं इस बेरंग और गंदी राजनीति में लेकिन.....किसी भी नेता से इंद्रधनुषी भविष्य की उम्मीद करना कल की तरह आज भी बेमानी लगता है......कोई भी पार्टी ऐसी नहीं जिसके दामन पर दाग नहीं लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में आज भी किसी को कोई गुरेज़ नहीं....

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

राहुल/वरुण गांधी.......

इस वक्त अखबारों में औऱ टीवी की हेडलाइन्स में अगर लोकसभा चुनाव के अलावा कोई सुर्खियां बटोरता नज़र आ रहा है….तो वो हैं....राहुल गांधी और वरुण गांधी....हालांकि माहौल पूरी तरह से चुनावी है.....इसलिए ये नहीं कह सकते....कि ये दोनों चुनाव से अलग अपनी पहचान की वजह से सुर्खियों में हैं....

बल्कि हम ये कह सकते हैं कि चुनाव की वजह से ही इन दोनों के पॉजिटिव और निगेटिव पहलू सामने आए...और हमें इनकी चर्चा करने पर मजबूर होना पड़ा......राहुल गांधी....दिखने में पढ़े-लिखे...शांत सौम्य....व्यक्तित्व के धनी लगते हैं....बोलते भी अच्छा हैं.....विकास की बातें करते है.....धुंआदार प्रचार कर रहे हैं......कभी संसद में कलावती का मुद्दा उठाते हैं तो कभी विदर्भ के किसानों की बात करते करते गमगीन हो जाते हैं....अब ये बात अलग है कि अपनी सभाओं में अपनी बातो और व्यक्तित्व की वजह से भीड़ तो दमदार जुटा लेते हैं.....लेकिन वोट बटोर पाने की ताकत आने में अभी भी थोड़ा कमज़ोर लगते हैं.......राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की ही प्रतिमूर्ति नज़र आते हैं....जिनके पीछे उनकी मां एक मजबूत आधार लिए खड़ी हैं........जो उन्हें विरासत में अमेठी भी देती हैं......और उनके हर कदम के साथ चलती हैं.....उनके सुनहरे भविष्य के लिए...

अब अगर हम बात करें वरुण गांधी की....तो यहां ये कहना ज्यादा उचित होगा कि वरुण गांधी का व्यक्तित्व अब तक ऐसा नहीं रहा कि उन्हें गांधी का सरनेम हटाने के बाद कोई पहचाने भी.......वरुण थोड़ा बहुत पोएट्री करते है और अब तक अपनी मां मेनका के आवरण से बाहर खुद से कोई राजनीतिक पहचान नहीं बना पाएं है.......वरुण और राहुल की उम्र में करीब दस सालों का फर्क लेकिन एक चीज़ जो दोनों में कॉमन है वो है गांधी शब्द.......राजनीति में गांधी शब्द का बड़ा महत्व है.....मैं बचपन से देखती,सुनती आयी हूं....लेकिन वरुण गांधी आज तक अपनी जगह या अपनी पहचान खुद से कभी नहीं बना पाए.....विरासत में अगर राहुल को अमेठी मिली तो वरुण को भी पीलीभीत.की सौगात दी गयी......हां लेकिन ये बात ज़रुर है कि राहुल की तरह वरुण को गांधी परिवार का वो हक नही मिला जिसके वो राहुल के साथ बराबर के हिस्सेदार है......

वरुण गांधी ऐन चुनावों से पहले अपने खतरनाक इरादों....मंसूबो और सनसनीखेज़ बयानबाज़ी के कारण चर्चा में आए है....लेकिन वो ये भूल गए कि दंगो में अपनों को खोने के बाद देश के हर हिस्से का आम हिंदुस्तानी इन सभी चीज़ों का अभ्यस्त है.....वो आज अचानक आग-बबूला नहीं होगा....अचानक ही उसके अंदर आग का शोला नहीं भड़केगा......क्योकि वरुण से पहले भी विनय कटियार......प्रवीण तोगड़िया....और नरेन्द्र मोदी जैसे दिग्गज अपनी अग्नि वर्षा से हमें इन बातों का अभ्यस्त बना चुके हैं.....

जो सवाल मेरे मन में उठ रहा है वो सिर्फ इतना है कि वरुण गांधी ने आखिर ऐसा क्यों किया.....सत्ता की भूख....अपना हक ना मिलने का फ्रस्टेशन.....या ऐन चुनावों से पहले सांप्रदायिकता का माहौल बनाके.....सस्ती पब्लिसिटी बटोरना.था ...और या कही ऐसा तो नहीं.....कि वरुण को इस वक्त मोहरा बनाके राजनीतिक षडयन्त्र की बिसात बिछायी गयी हो......वजह चाहे जो भी हो .....वरुण ने अपनी छीछालेदर खुद ही की है.....क्या वरुण को ये एहसास नहीं होगा.....कि वो जिस आग को भड़का रहे थे.....जिन हिंदु-मुसलमानों को अपने वोट और बाण के ज़रिए बांटना चाह रहे थे....वो इनकी बातों में आकर एक बार फिर पागल नहीं बनेगें......जिस गीता पर हाथ रखकर वो कसम खाने की बात करते हैं कितने लोग है जो उनकी इस कसम का विश्वास करेंगे.......कौन सी आबादी है जो वरुण को पुचकारेगी और कहेगी कि हां हम तुम्हारे साथ है....मारो-काटो.....क्या वरुण को दिखता नही होगा...अपना भविष्य.....या दूरदर्शिता के अभाव में वो महज़ एक प्यादा बनकर रह गए.....

या फिर वो ये सोच रहे हैं कि हम लोग इतने कमजोर हैं कि कोई भी आकर हिंदु मुसलमानों का मंत्र पढ़कर आग फूंके और हम सब मजबूर होकर जलना शुरु कर दें........वरुण गांधी ने क्या सोचा होगा....कि इन भाषणों के बाद अगर हिंदु मुसलमान वोट बंट भी जाएंगे तो क्या हिंदू वोट एकजुट होकर बीजेपी को मिल जाएंगे....फिर एक सवाल और भी लाजिमी है कि क्या पढ़े लिखे युवा वरुण ये भूल गए कि आज का भारत पढ़ा लिखा और ज्यादा समझदार है.....चंद लोगो की जुटी हुयी भीड़ उनके उन्माद में पागल होकर भले ही नारेबाज़ी करले......लेकिन मीडिया के माध्यम से देश भर में वरुण की छवि ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर गिर पड़ेगी.......या फिर ये भी हो सकता है कि अपने पिता संजय गांधी के पद चिन्हों पर चलने की कोशिश करते वरुण अपनी छवि एंग्री यंग मैन या हिंदुओ के रक्षक की बनाना चाह रहे हों.........

मुसलमान आबादी को निशाना बनाकर या ध्रुवीकरण की सत्ता का खेल खेलने वाले क्या ये नहीं जानते कि आज का भारत बदल चुका है...आज वो भारत नही जिसे रामलहर चलाकर उन्माद में बाबरी मस्जिद तुड़वा दी गयी.....आज के भारत का चेहरा बदल चुका है.....औऱ शायद राहुल गाधी को वो बदलाव की बयार की आहट पहले ही आ चुकी थी इसलिए ही राहुल विकास की बड़ी बड़ी बातें करते हैं........भले ही विकास हो या ना हो.....लेकिन लोगो के बीच में अपनी छवि ज़रुर बनाते हैं.....लेकिन वरुण एक ही खानदान के होते हुए भी वो खुद अपनी ही ज़ड़े खोखली करते नज़र आ रहे हैं.....शायद वो ये नही समझ पा रहे कि इस सांम्प्रदायिकता की राजनीति करके वो चंद सुर्खियां तो बटोर सकते है लेकिन अपना भविष्य सुनहरा नहीं कर सकते .........बारहाल सत्ता की दौड़ में तो दोनों ही गांधी है.....बाकी वक्त बताएगा कि हमारी जनता आज भी भावनाओं के उन्माद में बहती है या फिर बढ़ते भारत की तस्वीर बनाने की कूवत रखती है......