मंगलवार, 18 अगस्त 2009

दुख में पसरी ज़िंदगियां......

दुख एक ऐसा शब्द है...जो सिर्फ शब्द भर नहीं है और इससे कोई अछूता भी नहीं है..दुनिया मे कोई ऐसा शख्स नहीं...जिसे दुख ना हो या जिसने कभी दुख को जिया ना हो.....पर कितने अचम्भे की बात है कि इस दुख का कोई ओर छोर नहीं....इसके विस्तार को ना तो कोई माप ही पाया और ना ही कोई इसका निवारण कर पाया.....कहने को तो बड़ी बड़ी बातें लिखी होती है हमारे वेद पुराणों में...सिर्फ एक परमशक्ति के बारे में.....बड़े बड़े प्रवचन दिए जाते हैं प्रज्ञान पंडित और विद्वानों के द्वारा.....पर कोई पुरसुकून हालात पैदा नहीं कर पाते......किसी के दुख को बांट नहीं पाते.....शायद इस दुनिया में कोई भी दुख में डूबे व्यक्ति के मन की थाह नहीं ले पाता होगा.....और सवाल ये भी है क्या कोई दुख में डूबा व्यक्ति उस परम शक्ति में अपना ध्यान केन्द्रित कर पाता होगा.........

बहुत सारे सवाल उठते हैं हर रोज़ ज़हन में.....जिनका जवाब नहीं मिल पाता.... यहां ये सारी बातें इसलिए..... क्योंकि आदतन दुखी रहने वाले लोगो में शायद मैं भी शुमार हूं....पता नहीं क्या होता है....मैं जब भी घर से बाहर निकलती हूं तो रास्ते में मिलने वाली कई चीज़ें ऐसी होती हैं जो आंखों में नमी लाने के लिए काफी होती हैं.....और ऐसा मेरे साथ बचपन से होता आ रहा है......और फिर गुस्सा और भी बढ़ जाता है....जब प्रवचन मिलते हैं...भगवान की मरज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता......भगवान बड़े दयालु हैं......भगवान किसी का बुरा नहीं चाहते......वगैरह वगैरह.......पर मेरा सवाल ये भी है......अगर ये ही भगवान की दुनिया है तो फिर ये दुनिया ऐसी क्यों है......शायद ग़रीबी से बड़ी ज़िल्लत और दर्द कुछ और नहीं......

मैंने आजतक भूख से बिलखते बच्चो को भगवान को दूध पिलाते नहीं देखा.....किसी के लिए रोटी की बरसात होती नहीं देखी.....कूड़ा बीनते बच्चों को किसी को रोकते नहीं देखा....मुझे भगवान दिखायी ही नहीं देता .....मुझे आज भी याद है जब भी हमारी गली में से देर रात कोई बारात गुज़र रही होती थी तो अपनी मां से ज़िद करके हम उसे देखने खड़े हो जाया करते थे.....पर ना मालूम क्यों उस बारात के बैंड-बाजे मुझे उतना प्रफुल्लित नहीं कर पाते थे जितना उदास उस बारात के साथ चलने वाले बच्चों को देख कर हो जाया करती थी....जो उस वक्त मेरी ही उम्र के रहते होंगे....लेकिन अपने कांधों पर लाइटों का बोझ लेकर चलने के लिए मजबूर थे.......

मुझे समझ नहीं आता मैं कहां जाऊं......क्या करुं....वो बच्चे आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते....आज भी नज़र आ जाते हैं....सड़कों पर....ढाबों पर....सिग्नल पर....गाड़ी साफ करते......कचरा बीनते.....और कभी भीख मांगते......वो सारे के सारे बच्चे वो ही बच्चे होते हैं.....अपना बचपन खोते.....मेहनत मजदूरी करने को मजबूर होते.....बस सिर्फ शक्लें बदली सी होती हैं...और कुछ नहीं.........वो बच्चे मुझे आज भी उतना ही रुलाते हैं जितना बचपन में रुलाते थे......मैं तब भी उनके लिए कुछ करना चाहती थी...और आज भी करना चाहती हूं.....लेकिन शायद मेरे पास उतने साधन नहीं होते जिनसे मैं इनका बचपन इन्हें वापस दे सकूं......मुझे इन बच्चों को देखकर अपने घर में मौजूद बच्चों का चेहरा याद आता है.....कि उनकी ही तरह क्या ये ज़िद्द नहीं करना चाहते होंगे.....क्या इनकी इच्छाएं नहीं होती होंगी......क्या किस्मत ही सबकुछ हो जाती है ज़िंदगी में.............

अफसोस और बड़ा हो जाता है जब हर दुख एक दूसरे से बड़ा ही दिखायी देता है.....तब भी इतना ही दर्द होता है जब कोई बुज़ुर्ग नज़र आता है...रिक्शा खींचता.....मज़दूरी करता.......आंखों में दया की याचना लिए भीख मांगता......या फिर अपने ही बच्चों से तिरस्कृत किसी ओल्ड ऐज़ होम में ज़िंदगी बसर करने पर मजबूर होता.......क्योंकि उन बच्चों और बुज़ुर्गों में मुझे अपने घर पर मौजूद बच्चे और बुज़ुर्ग नज़र आते हैं जिनकी हम इतनी इज्जत और प्यार करते हैं पर बाहर............शायद इमोश्नल होना घर पर ज़रुरी हो जाता है और बाहर प्रैक्टिकल एप्रोच रखना ज्यादा बेहतर.....

दुख मुझे तब भी होता है जब किसी शहीद की अनदेखी होती है.......सूखे के हालात हो जाते हैं.....बाढ़ में ज़िंदगिया बर्बाद हो जाती हैं.....और हमारे नेता टैंट लगवाकर......लाउडस्पीकर का इंतज़ाम कर पूरी सब्जी,हलुवा बंटवाते हैं....वोटों की खातिर......

किसी विधवा की ज़िंदगी......और दूर बॉर्डर पर गए फौजी की बीवी का दर्द भी मुझे अपना सा ही लगता है.......अपनी आंखों के सामने किसी बूढ़ी मां को अपना जवान बेटा खोता हुआ देखा है.....इसलिए अब हर मां के आंसू मुझे भी भिगो जाते हैं.....और हां ....खुद अकेले रहते रहते....अकेलेपन का दंश कितना चुभता है ये भी बहुत अच्छी तरह जानती हूं.......पर इन सबका फिर भी इलाज़ नज़र आता है....लेकिन ग़रीबी उसका तो इलाज ही सिर्फ पैसा है......कैसे मिले इन बच्चों और बुज़ुर्गों को एक बेहतर ज़िंदगी......

मैंने यही रहते अपने समाज का आईना भी करीब से देखा है....देखा है लोगों को ....ग़रीबों की ज़िंदगी कैश करवाते.....कितने एनजीओ..इन सबकी सहायता के नाम पर करोंड़ों की एड हज़म कर जाते हैं.... कितनी समाजसेविकाएं और समाज सेवक अपना चेहरा कितना पाक साफ रखना चाहते हैं.........बड़ी बड़ी बातें करते हैं पर नतीजा सिर्फ सिफर....तो दर्द का तो कोई ओर छोर ही नहीं मिलता मुझे ......बहुत मन कसमसाता है कुछ करने का .....पर सिर्फ चंद रुपए किसी की ज़िंदगी नहीं बना पाएंगे ये मैं जानती हूं.....पर हां उन सारी तकलीफों से गुज़रने वाले बच्चों,बुज़ुर्गों और ज़रुरतमंद लोगों के लिए दुआ ज़रुर करती हूं कि मेरे पास तो अभी फिल्हाल इतने साधन नहीं......जो मैं इन सबके लिए चांद तारे तोड़कर ला सकूं.....एक सवेरा इनकी राहगुज़र बिछा सकूं......पर जो लोग कर सकते हैं,वो कुछ ज़रुर सोंचे.....और थोड़ा सा,बस थोड़ा सा अपना दिल बड़ा कर इनके बारे में ज़रुर सोंचे......

6 टिप्‍पणियां:

  1. तनुजी आँखेंनम हो गयी आपका आलेख पढते पढते कितना मजबूर सा हो जाता है इन्सान किसी का दुख बाँटने मे और सब से बडी त्रासदी है कि इन्सान के कई दुखों का कारन भी इन्सान ही है ।भ्रश्टाचार बेईमानी राजनीति धार्मिक उन्मान्द ऐसे कई मुद्दे हैं जो अगर सुलझ सकें तो शायद जीवन किछ आसान हो जाये इसके अभाव मे तो हम और आप बस प्रभू से विनती ही कर सकते हैं या आंशिक्रूप मे एक आध की सहायता बहुत बडिया पोस्त है आभार्

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  3. क्या कहू तनु जी .....आपका लेख पढ्कर ऐसा लगा की एक एक पंक्तियाँ मेरे जीवन से होकर गुजरी है ......मुझे भी कभी कोई बारात और उसमे सरीक लोगो के उपर नजर नही जाता था सिर्फ और सिर्फ लाइट को ढोते बच्चो पर ही जाती थी किसी जुलूस मे झंडा को ढोते तो कभी कभी कम उम्र रिक्शा चलाते बच्चे और बुजुर्ग सभी वैसे ही नजर आते जैसे आपने बयान करी है .........मै घंटो सिर्फ रोता ही नही बलिक परेशान हो जाया करता था .........कई चीजे जो मुझे आसानी से मिलती थी तो उसे वर्जित कर देता था ......यह मान लेता था यह चीजे मुझे भी नही मिली है पर त्याग कर उंके जैसा थोडा जीने की कोशिश कर थोडा खुश अवश्या हो जाता था कि मै उनके दुख के साथ जी रहा हूँ.....जैसे जाडे मे रजाई की जगह कम्बल तो बेड पर बिना तकिये का सोना , जो तकिया मेरे बाजू मे ही पडा रहता और मै इसे योग समझ्ते हुये त्याग करता था.....तकिया गरीबो के पास नही होती है,इस्लिये तकिये का त्याग करता था, मै बहुत ही छोटा रहा होउंगा तब यह करता था और थोडा खुश हो जाता था कि मै गरीबो की तरह जी रहा हूँ और उनके दर्द के करीब पहुंच रहा हूँ...........बचपन मे जब यह सब चीजे देखकर बहुत ही दुखी रहता था जिन्दगी मे कुछ करने की चाह होती थी पर समय का भी साथ देना बहुत ही जरुरी होता है न........ऐसे समय मे माँ मेरे साथ अवश्य होती थी जब कभी ऐसी बाते बताती तो वह आवश्य ऐसे लोगो की सहायता करतीऔर वह भी मेरे दुख से जरुर दुखी होती उसका भी मेरे जैसा स्वाभाव है ऐसा लगता है पर उसे बहुत ही जल्द दुनियादारी मे लौटनी होती थी पर मै इस बात पर कई दिनो तक उदास रहता था......आज भी वह चीजे पिछा नही छोड्ता है .......और इस सरापित जिन्दगी जीने को मजबूर हूँ .........आज पर भागवान से यही मै पुछ्ता हूँ कि तुमने गरिबी को क्यो बनाया........भगवान पर मुझे प्रवचन सुनना बचपन से ही नही सुनना चाहता .....क्योकि बचपन से कई सारे सवाल आज भी मेरा पिछा नही छोडते है और ना ही कोई जवाब पा सका हूँ ...........आप इन समस्याओ का जो अपने पाया है ठिक मै भी यही पाया हूँ ................एक भी पंक्ति अनजानी नही लगी ..........पूरी एक एक पंक्ति मेरे जीवन का ही दर्द लगा .........मै भी यही जिया हूँ............आज भी आपजिन पंक्तियो से शुरु करी है वैसे ही चीजे देखकर परेशान हो जाता हूँ...................आपका पोस्ट मुझे इस्लिये अच्छा लगता है कि जिस सुक्ष्म स्तर की सम्वेदनाओ को परस्तुत करती है जो सिर्फ और सिर्फ मेरे ही ही दिल और आत्मा की बात लगती है ....चाहे वह किसी भी एहसास से लबरेज़ हो ................ऐसा लगता है कि आपके ये शब्द मेरे आवाज बन गये हो .......ऐसे ही लिखते रहे .........बहुत बहुत बहुत आभार

    ओम आर्य

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  4. दुःख से पसरी जिंदगियों पर आपके दुःख ने हमें भी दुखी कर दिया..!!

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