गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

संजय दत्त....

वक्त हमेशा ही इंसान को अपनी कसौटी पर परखता रहता है…ये सब जानते हैं....सिवाए मुन्नाभाई के......जीहां मुन्ना भाई यानि संजय दत्त.....बार-बार कड़ी से कड़ी कसौटी पर उतरने के बावजूद वो ये सच्चाई समझना नहीं चाहते या फिर अंजान बनने की एक्टिंग में मसरुफ हैं.....कुछ भी हो उनके हालात पर तरस तो आता ही है.....।

सुनील दत्त की छत्रछाया में रॉकी से खलनायक और खलनायक से मुन्नाभाई तक का सफर तो संजय दत्त ने खूब किया....संजय दत्त शायद ये भूल जाते हैं कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एक खुली किताब है.....वो एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.....जिसमें हिंदुस्तान की जनता को नशा मिलता है....सिनेमा हमारे समाज की इच्छाओं और कुंठाओ दोनों को दिखाता है...और संजय दत्त उसी दुनिया से आते हैं।

हांलाकि फिल्मी दुनिया में एक सफल सफर तय करने के बाद संजय दत्त का राजनीति में उतरना कोई बड़ी बात नहीं....इसके पहले भी कई और फिल्मी हस्तियों ने गाहे-बगाहे राजनीति का दामन थामा ही है....हालांकि कितनों की किस्मत राजनीति मे चमकी ये भी जनता को याद दिलाने की जरुरत नहीं..।

सत्ता का नशा किसी भी दौलत और ग्लैमर से ज्यादा बढ़ा होता है....ये बात संजय दत्त के ज़रिए हम एक बार फिर देख रहे हैं.....संजय दत्त जिस तरह की लफ्फाज़ी और बयानबाजी कर रहे हैं....ये उनकी राजनीतिक कच्ची उम्र का पर्याय जरुर बताती है....लेकिन राजनीति में ही इसे मानसिक दिवालिएपन से कम नहीं आंका जा रहा है...संजय दत्त तो फिल्मी इंसान है इसलिए शायद रील और रियल लाइफ में फर्क करना अक्सर भूल जाते हैं....लेकिन जिन्हें संजयदत्त ने अपना सरमाया बनाया है....वो कहीं संजय की डोर संभाले हैं...ये दिखता है और साफ नज़र आता है कि संजय दत्त महज़ एक राजनीतिक प्यादा बनकर रह गएं है...।

संजय दत्त ना केवल अपना व्यक्तित्व हल्का बना रहे हैं.....बल्कि अपने पिता की राजनीतिक विरासत और छवि भी धूल में मिला रहे हैं.....संजय ये बखूबी जानते हैं कि उनकी ये कारगुज़ारियां उनकी बहन प्रिया दत्त को भी चोट पहुंचा रहीं है....पर बावजूद इसके राजनीति का ये नशा संजय को अपनी पूरी गिरफ्त में ले चुका है।

क्या हमें ये नज़र नहीं आता कि संजय के ये भड़काऊ और अविकसित बयान.....चाहें वो बीएसपी सुप्रीमो मायावती को जादू की झप्पी और पप्पी देने की बात हो या फिर अपनी मां नरगिस के मुसलमान होने की बात का तड़का लगाकर थोड़ी बहुत सांप्रदायिकता की आंच और फैलाने की कवायद हो.....महज़ स्टंटबाज़ी लगती है।

सवाल ये है कि क्या संजय को वाकई जनता की सेवा ही करनी थी...अगर जवाब हां है तो इस राजनीतिक स्टंट की क्या ज़रुरत थी.....या फिर हम इसे ये माने की उन्हें भी बाकी बाहुबलियो और आपराधिक छवि के लोगों की तरह महज़ राजनीतिक संरक्षण की जरुरत भर थी....जिसे अमर सिंह ने बांहे फैलाकर उनका स्वागत कर अपने बड़े दिल का उदाहरण पेश किया..........

क्या जनता वाकई इतनी बेवकूफ है.......
शायद हां.....शायद नहीं.....
लेकिन इतना तो तय है कि संजय को इसका जवाब आने वाले वक्त में खुद-ब-खुद मिल जाएगा।

5 टिप्‍पणियां:

  1. जाहिर है पचास के होकर भी वे नादान ओर अपरिपक्व है ...अपनी पूरी उम्र उन्होंने अपने पिता ओर परिवार को कठिन समय दिया था ओर उस दौर में जहाँ उनकी एक थोडी उजली छवि बनने लगी थी ...उन्होंने आत्मघाती कदम उठ लिया

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  2. बिल्कुल जी, डॉ अनुराग से सहमत..शायद शान्ति उनके नसीब में नहीं.

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  3. संजय ने सोचा होगा की राजनीती में आकर उन्हें संरक्षण मिल जायेगा. कईयों को मिला जो है.

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  4. संजय दत्त-अफ़सोस न तो हिन्दू बन पाया ना ही मुस्लमान इन्सान की औलाद हो कर भी इंसान नहीं बन पाया।

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  5. संजय दत्त-अफ़सोस न तो हिन्दू बन पाया ना ही मुस्लमान इन्सान की औलाद हो कर भी इंसान नहीं बन पाया।

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